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हजरत इमाम हुसैन और हसन की याद में मोहर्रम का त्यौहार , पूरी दुनिया में अकीदत व सादगी का पर्व

अतरौलिया आजमगढ़। हुजूर स.अ.व. के निवासी नाती हजरत इमाम हुसैन और हसन की याद में मोहर्रम का त्यौहार पूरी दुनिया में अकीदत व सादगी के साथ मनाया जाता है। हजरत इमाम हुसैन की याद में मनाया जाने वाला मोहर्रम का त्यौहार कर्बला के उन शहीदों को खिराजे अकीदत के रूप में मनाया जाता है। जिन्होंने सच्चाई का दामन न छोड़कर अपने हक के लिए अपने खानदान तक को कुर्बान कर दिया। इमाम हसन हुसैन हक के लिए अपनी गर्दन कटा कर अपने नाना मोहम्मद मुस्तफा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का वादा पूरा कर दिया। इमाम हुसैन ने मक्कार जाली के सामने सर न झुकाकर दुनियां को यह दिखा दिया कि हक हमेशा जिंदा रहता है। आज इमाम हुसैन हक के लिए अपनी गर्दन कटा कर भी दुनिया की निगाहों में जिंदा हैं।
    "फजले हुसैन असल में मरगे यजीद है।
     इस्लाम जिंदा होता है हर कर्बला के बाद"
मुहर्रमुल हराम साल का पहला महीना है। इसकी बुजुर्गी व फजीलत बेशुमार है। इसी महीने की दसवीं तारीख आशूरा के दिन की बहुत सारी फजीलत है। इस मुबारक महीने में हजरत सैयदना इमाम हुसैन रजि्अल्लाह इस्लाम के परचम को बुलंद करने के लिए अपने नौनिहालों को अल्लाह की राह में कुर्बान किया। इसी माह के दसवीं तारीख आशूरा के दिन कर्बला के तपते हुए सेहरा में अली अकबर की जवानी कुर्बान हुई। औनो मोहम्मद को खाको खून से लथपथ जोहरा का लाल मुस्तफा का नूर हुजूर के कंधों की सवारी करने वाले कर्बला के गाजियों के मीर, लस्करे हजरत इमाम आली मुकाम ने इस्लाम की अजमत को बुलंद कर को बुलंद करने के लिए अपने आपको कुर्बान किया। हदीस शरीफ में आया है कि हुजूर स. अ. वसल्लम ने फरमाया कि जो मेरे नवासे का दुश्मन है, वह मेरा दुश्मन है, मेरा दुश्मन के माने अल्लाह का दुश्मन है। अल्लाह का दुश्मन जहन्नमी होता है। एक बार हुजूर स.अ. वसल्लम ने इमाम हुसैन के मुंह चूम कर कहा कि अल्लाह तू इसे महफूज रख क्योंकि मैं इसे महफूज रखता हूं।
मोहर्रम के महीने का बहुत अहमियत है। क्योंकि इसी महीने में अरबी महीने का शुरुआत होती है। यौमे आशूरा यानी दसवीं मोहर्रम शहादते हुसैन का दिन है। इस दिन का फजीलत इसलिए है कि इस्लाम का हर अच्छा व नेक काम इसी दिन से हुआ है। इसी दिन हजरत आदम खाक से पैदा कर दुनिया में लाए गए। इसी दिन के फजीलत से हजरत नूह की कश्ती अल्लाह के रहमों करम से महीनों पानी में तैरती रही। इसी दिन पैगंबर हजरत मूसा की पैदाइश हुई। इसी दिन मक्कार जालिम फिरौन व उसके साथी दरिया में गर्क हुए। इसी दिन अल्लाह के हुक्म से दरिया ए नील में रास्ता बना जिस पर हजरत मूसा व उनके साथी आसानी से दरिया पार किए।इसी दिन हजरत अयूब का मर्ज से सिफा मिला ।इसी दिन हजरत यूसुफ को आंखों की रोशनी लौटी। सबसे अहम बात है कि इसी दिन अल्लाह के आखिरी नबी मोहम्मद मुस्तफा स.अ. वसल्लम मक्का से मदीना के लिए हिजरत करके गये। और वहां उन्होंने देखा कि यहूदी लोग आशूरा के दिन रोजा रखते हैं।
इस तरह से इस महीने की दसवीं तारीख आशूरा के तमाम फजीलत हैं। और सबसे अहम बात यह है कि मोहर्रम की दसवीं तारीख को इमाम हुसैन को यजीदी फौज ने शहीद कर दिया ,और सर को धड़ से अलग कर दिया। इमाम हुसैन की लड़ाई किसी तख्त या मुल्क की नहीं थी। यह लड़ाई हक और नाहक की थी। हजरत इमाम हुसैन ने अपनी शहादत देकर यह साबित कर दिया कि ऐ यजीद एक सच्चा व पक्का मुसलमान अपना सर कलम करवा सकता है ,लेकिन सर अल्लाह के इलावा किसी दूसरे के सामने नहीं चुका सकता। और यह भी साबित कर दिया कि दुनिया में ऐसो इशरत की जिंदगी गुजारने के बजाय हक पर रहो, लोगों की मदद करो, और हक पर रहकर अपने दीन की खिदमत करो। यही वजह है कि आज दुनियां के लोग इमाम हुसैन को बड़े खोलूसे मोहब्बत से याद करते हैं। और उनकी याद में मोहर्रम का त्यौहार मनाते हैं ।हक की लड़ाई के लिए अली असगर, अब्बास अलमदार, मोहम्मद कासिम व अन्य हक के मानने वालों ने राहे हक में अपने को कुर्बान कर दिया। और खुद इमाम हुसैन ने दसवीं मोहर्रम सन् 61 हिजरी में दुश्मनों से लड़ते लड़ते शहीद हो गए। इमाम हुसैन की लड़ाई हक की लड़ाई थी। जिसकी याद में आज भी मुसलमान मोहर्रम का त्यौहार मनाते हैं। इसलिए आशूरा की बहुत फजीलत है। तमाम मुसलमानों को चाहिए कि इस दिन रोजा रखे गरीब मिस्कीन को खाना खिलाएं, यतीमों के सर पर हाथ फेरे, उनकी मदद करे। इस प्रकार क्षेत्र के हैदरपुर, भौराजपुर, लोहरा, तेजापुर, पचरी, भगतपुर,  बूढ़नपुर, अतरैठ, बांसगांव आदि जगहों पर हजरत इमाम हुसैन की याद में सादगी के साथ  त्यौहार मनाते हैं। और उनकी याद को ताजा करते हैं।


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